झारखंड में कोविड-19 त्रासदी में एक नया नारा उभरा है – हेमंत है तो हिम्मत है।

कोविड -१९
झारखंड में पहिया का रूख मुड़ेगा !
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झारखंड में कोविड – 19 त्रासदी में एक नया नारा उभरा है – ” हेमंत है तो हिम्मत है “।
क्या इस नारे में पहिये का रूख मोड़ने की क्षमता है ।
कंक्रीट के जंगल से हरे भरे झारखंड का रूख । शहरों और उद्योगों से गांव खेत और वनों का रूख ।
झारखंड में साफ साफ दो दुनिया है। एक तरफ आधूनिक विकास की दुनिया। दूसरी ओर प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर चलने वाली दुनिया।
एक ओर जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो जैसे औद्योगिक शहर जो आधूनिक विकास के प्रतीक हैं तो दूसरी ओर कोल्हान, खूंटी और संताल परगना के गांव, जंगल नदी और,पारंपरिक आदिवासी अर्थ व्यवस्था और जीवन शैली ।
दोनों दो अलग अलग धारा के प्रतीक । एक ओर उद्योग दूसरी ओर खेत जंगल पहाड़ और नदियां । दोनों एक दूसरे की विरोधी। कोई समन्वय नहीं।
समन्वय हो सकता था, दोनों एक दूसरे के पूरक भी हो सकते थे, लेकिन इतिहास में राजनैतिक कारणों से ऐसा नहीं हुआ। योजना पूर्वक झारखंड के कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हुई। कृषि क्षेत्र को कुचल कर उपनिवेश की तरह जमशेदपुर बोकारो और धनबाद जैसे औद्योगिक शहर बसाये गये।
इससे उपजी विसंगतियों के समाधान में औद्योगिक क्षेत्र विफल रहा। झारखंड से रोजी रोजगार के लिये इतनी बड़ी संख्या में पलायन इसी का परिणाम है। मोटे तौर पर यह आंकड़ा करीब नौ लाख है।
इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि पिछली सरकार द्वारा स्किल डेवेलपमेन्ट कार्यक्रम के तहत जिन युवाओं को प्रशिक्षित किया गया उन्हें बाहर के राज्यों में सस्ते मजदूर की तरह प्लेसमेंट किया गया। सरकार ने ही एक तरह से लेबर सप्लाई का काम किया। (यह एक अलग मामला है, इस पर फिर कभी।)
कोविड – 19 आपदा में अब इन मजदूरों की घर वापसी हो रही है। अपने गांव घर और इलाके में ही इन्हें काम मिले, यह एक बड़ा सवाल है।
पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी रोजगार बढ़ाने के लिये फिर से राज्य में नये उद्योग स्थापित करने एवं उद्यमियों को प्रोत्साहित करने की सलाह दे रहे हैं। भाजपा की मूल आर्थिक नीति भी यही है।
बाबूलाल जी के इस सुझाव में छोटी जोत के किसानों का कोई स्थान नहीं है। जेसे दिहाड़ी मजदूर बनना ही इनकी नीयति है। इस तरह उद्योगों के लिये मजदूर तैयार मिलेंगे। अकुशल सस्ते मजदूर ।
गुलामी के लिये मजबूर । वही सब्सीडी और अनुदान की जिंदगी। आत्मनिर्भरता और आत्म सम्मान से दूर । शायद बाबूलाल जी जैसों के लिये यही आदर्श है।
आजादी के बाद से देश के आदिवासी अंचलों में और खास कर खनिज क्षेत्रों में यही आदर्श नीति चलती रही।कांग्रेस की भी आदिवासी अंचलों को लेकर यही सब्सीडी वाली नीति रही है।
भूमंडली करण और खास तौर पर भाजपा के कार्यकाल में यह प्रक्रिया और भी तीखी हो गयी । उद्योगों के लिये भूमि अधिग्रहण में तेज हुआ। इसके लिये विशेष रूप से कानून और प्रावधानों में संशोधन किया गया।
कोविड – 19 से विश्व के पैमाने पर स्थितियां बदल रही हैं । यह भी तय है कि अब शहरों में रोजगार के अवसर कम होंगे। लोगों की सोच भी बदल रही है। दुनिया में पर्यावरण की चिन्ता बढ़ रही है। कम से कम अगले दस साल तक विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण मूल मसला होगा।
ऐसे में क्या झारखंड आन्दोलन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा की नेतृत्व वाली सरकार झारखंड में पहिया का रूख मोड़ पायेगी । यह एक बड़ा सवाल है।
पहिया के रूख से मतलब है , प्राथमिकता के साथ कृषि, वन और उससे जुड़े छोटे पारंपरिक उद्योगों को आगे बढ़ाने के कार्यक्रम। विकास की दिशा को आधूनिक उद्योगों से मोड़ कर शहरों से मोड़ कर खेतों और गांव की ओर ले जाने की पहल।
हालांकि सरकार में उसके साथ कांग्रेस भी है,
और, औद्योगिक विकास को ही विकास मानने समझने वाले वही नौकरशाह भी हैं। केन्द्र में भी बाजारवाद को प्रोमोट करने वाली भाजपा सरकार है।
फिर भी, झारखंड के लोगों को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर भरोसा है कि वह कर सकता है…
वह पहिया का रूख मोड़ सकता है
गुरूजी का बेटा है ….
झारखंड आन्दोलन की गोद में बड़ा हुआ है..
वह झारखंड को बदलेगा…
लोगों ने एक नया नारा भी गढ़ा है –
” हेमंत है तो हिम्मत है ”
और इस नारे को झारखंड वासियों की परिकल्पना के साथ सच में परिवर्तित करते हुए आगे बढ़ रहे हैं झारखंड के युवा लोकप्रिय मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन।